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Terahvi Sanskar Kya Hai : मृत्यु के बाद क्यों जरूरी है तेरहवीं भोज? इसका क्या है महत्व ?

Terahvi Sanskar kya hai, तेरहवीं संस्कार क्या है?
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Terahvi Sanskar Kya Hai: तेरहवीं भारतीय परंपरा में एक महत्वपूर्ण संस्कार है, जो किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके परिवार द्वारा किया जाता है। यह संस्कार प्रायः 13वें दिन मृत्यु के बाद आयोजित होता है। इन संस्कारों का गहरा आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक महत्त्व है। इन्हें करने का उद्देश्य न केवल मृत आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना है, बल्कि जीवित परिजनों को मानसिक और भावनात्मक सहारा देना भी है।

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तेरहवीं संस्कार क्या है? (Terahvi Sanskar Kya Hai?)

हिन्दू धर्म में मान्यता है कि मृत्यु के बाद आत्मा, शरीर से निकल कर मोक्ष या पुनर्जन्म की यात्रा पर होती है। तेरहवीं संस्कार का आयोजन आत्मा की शांति के लिए किया जाता है, जिससे वह सद्गति को प्राप्त करे और अगले जन्म के लिए तैयार हो सके। यह दिन मृतक की आत्मा को मोक्ष प्राप्त करने की दिशा में सहायता करने के लिए होता है। इसे पिंडदान और श्राद्ध के रूप में पूजा जाता है, जिससे मृतक के पूर्वजों को शांति और आशीर्वाद मिलता है।

मृत्यु के बाद संस्कारों का उद्देश्य (Marne Ke Baad Hone Wale Sanskar)

मृत्यु जीवन का अनिवार्य और अंतिम सत्य है। भारतीय धर्मग्रंथों में इसे आत्मा की शारीरिक सीमाओं से मुक्ति और एक नई यात्रा की शुरुआत माना गया है। मृत्यु के बाद किए जाने वाले संस्कार आत्मा को अगले जन्म या मोक्ष के लिए मार्गदर्शन देने के साथ ही जीवित व्यक्तियों के मानसिक शुद्धिकरण का साधन भी होते हैं।

शरीरिक शुद्धता (shareerik shuddhata)

मृतक के घर में कई दिन तक शोक और शुद्धता की प्रक्रिया चलती रहती है। तेरहवीं के दिन परिवार के सदस्य मानसिक और शारीरिक रूप से शुद्ध होने का प्रयास करते हैं। इस दिन कई बार घर के वातावरण को शुद्ध करने के लिए हवन या पूजा का आयोजन किया जाता है, जिससे नकारात्मक ऊर्जा को दूर किया जा सके।

3 – सामाजिक और सांस्कृतिक एकता

मृत्यु के बाद के संस्कार समाज और परिवार के सदस्यों को एक साथ लाने का कार्य करते हैं।

ये संस्कार हमें हमारी सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ते हैं और सामूहिक रूप से दुःख सहने की क्षमता प्रदान करते हैं।

मृत्यु के बाद किए जाने वाले मुख्य संस्कार

मृत्यु के बाद हिंदू धर्म में मुख्य रूप से अंत्येष्टि (दाह संस्कार), पिंडदान, श्राद्ध और तर्पण जैसे संस्कार किए जाते हैं। इनका क्रम और विधि अलग-अलग परंपराओं और परिवारों के अनुसार बदल सकते हैं।

अंत्येष्टि (दाह संस्कार)– यह पहला और सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। इसमें मृत शरीर को अग्नि के हवाले किया जाता है।अग्नि को शुद्धि और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। दाह संस्कार के माध्यम से शरीर पंच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश) में विलीन हो जाता है।अग्नि से शरीर का नाश होने के बाद वातावरण में किसी प्रकार की अशुद्धि या संक्रमण का खतरा नहीं रहता। दाह संस्कार आत्मा को शरीर के बंधन से मुक्त करता है, जिससे वह अपनी नई यात्रा शुरू कर सके।

पिंडदान – पिंडदान का उद्देश्य मृत आत्मा को भोजन और ऊर्जा प्रदान करना है। इसमें चावल, तिल और गुड़ से बने पिंड अर्पित किए जाते हैं।यह माना जाता है कि मृत आत्मा जब तक परलोक नहीं पहुंचती, उसे इन पिंडों के माध्यम से भोजन की आवश्यकता होती है।पिंडदान आत्मा को मृत्यु के बाद के मार्ग पर आगे बढ़ने में सहायता करता है।तिल और गुड़ का उपयोग वातावरण को शुद्ध करता है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।

श्राद्ध– श्राद्ध संस्कार मृतकों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है। इसे मृत्यु के बाद के 13 दिनों या वार्षिक तिथि पर किया जाता है।श्राद्ध के माध्यम से मृत आत्मा को तर्पण (जल अर्पण) और पिंडदान कर उनके मोक्ष की कामना की जाती है।इसमें ब्राह्मणों या जरूरतमंदों को भोजन कराया जाता है और दान दिया जाता है। श्राद्ध मृतक के प्रति परिजनों की श्रद्धा, कृतज्ञता और प्रेम का प्रदर्शन है।

तर्पण– तर्पण में जल अर्पण कर पितरों (पूर्वजों) को संतुष्ट किया जाता है।जल तर्पण से पितरों को ऊर्जा और शांति मिलती है। जल अर्पण का प्रभाव पर्यावरण पर सकारात्मक होता है, और यह समाज में दान की भावना को प्रोत्साहित करता है।

मृत्यु संस्कारों का धार्मिक और पौराणिक महत्व

भारतीय धार्मिक ग्रंथों जैसे वेदों, पुराणों, और महाभारत में इन संस्कारों का उल्लेख मिलता है।ऋग्वेद और अथर्ववेद में मृत्युपरांत संस्कारों का वर्णन है।

अग्नि को माध्यम मानकर आत्मा को मोक्ष प्राप्ति की कामना की जाती है।गरुड़ पुराण में मृत्यु और परलोक यात्रा का विस्तृत विवरण है। इसमें बताया गया है कि आत्मा 13 दिनों तक परलोक में अपनी स्थिति को लेकर संघर्ष करती है। संस्कार इसे सुगम बनाते हैं। महाभारत में भी पांडवों द्वारा अपने परिजनों के लिए किए गए श्राद्ध और तर्पण का वर्णन है।

मृत्यु के बाद के तेरह दिनों का महत्व

हिंदू धर्म और संस्कृति में मृत्यु के बाद तेरह दिनों तक किए जाने वाले संस्कारों और कर्मकांडों का गहरा धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। इन तेरह दिनों को मृत आत्मा की परलोक यात्रा और परिजनों की मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्थिति के संतुलन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इन दिनों में आत्मा को शांति प्रदान करने और परिजनों को दुःख से उबरने में सहायता मिलती है। इस विस्तृत विवरण में हम इन तेरह दिनों के महत्व और हर दिन किए जाने वाले कार्यों को विस्तार से समझेंगे।

तेरह दिनों का धार्मिक और पौराणिक आधार, आत्मा की यात्रा और गरुड़ पुराण का वर्णन
गरुड़ पुराण, जो हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, में कहा गया है कि मृत्यु के बाद आत्मा 13 दिनों तक भौतिक और आध्यात्मिक संसार के बीच की स्थिति में रहती है।

पहले दिन से तीसरे दिन तक : आत्मा अपने पुराने जीवन के अनुभवों और शरीर से जुड़े मोह को छोड़ने की प्रक्रिया में होती है। इस दौरान आत्मा के लिए कर्मकांड और प्रार्थना आवश्यक मानी जाती है।

चौथे से दसवें दिन तक: आत्मा यमलोक (या परलोक) की यात्रा करती है।
ग्यारहवें से तेरहवें दिन तक: आत्मा को पितृलोक में प्रवेश मिलता है या पुनर्जन्म की प्रक्रिया शुरू होती है।

तेरह दिनों की प्रथा का आरंभ

वेदों और उपनिषदों में तेरह दिनों के संस्कारों का उल्लेख मिलता है। यह परंपरा आत्मा को शांति और मोक्ष प्रदान करने के लिए विकसित की गई थी।
इन दिनों में परिजनों को भी शोक से उबरने और अपने दैनिक जीवन में वापस लौटने का मार्गदर्शन मिलता है।

तेरह दिनों के संस्कारों का क्रम

पहला दिन: अंतिम संस्कार (दाह संस्कार) -मृतक के शरीर को अग्नि को समर्पित किया जाता है।आत्मा को शरीर से मुक्त कर पंचतत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) में विलीन करना।अग्नि आत्मा को शुद्ध करती है और उसे परलोक यात्रा के लिए तैयार करती है।शरीर के जलने से संक्रमण और बीमारियों का खतरा समाप्त हो जाता है।

दूसरा से चौथा दिन: अस्थि संचयन और विसर्जन- दाह संस्कार के बाद हड्डियों और राख को एकत्र कर पवित्र नदी में प्रवाहित किया जाता है।यह आत्मा के पृथ्वी से पूरी तरह मुक्त होने का प्रतीक है।आत्मा को अपने भौतिक बंधनों से छुटकारा मिलता है।

पांचवां से नौवां दिन : पिंडदान और प्रार्थना- हर दिन पिंडदान किया जाता है। चावल, तिल और गुड़ से बने पिंड मृत आत्मा को अर्पित किए जाते हैं।आत्मा को परलोक में भोजन की आवश्यकता होती है, जिसे पिंडदान के माध्यम से पूरा किया जाता है।यह परिवार के सदस्यों के लिए आत्मा के प्रति सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करने का समय होता है।

दसवां दिन: दशगात्र संस्कार- दसवें दिन विशेष पूजा और हवन किया जाता है।इस दिन आत्मा को यमलोक में प्रवेश मिलता है।परिवार के सदस्यों के शुद्धिकरण के लिए भी यह दिन महत्वपूर्ण है।ब्राह्मणों और जरूरतमंदों को भोजन और वस्त्र दान किए जाते हैं।

ग्यारहवां और बारहवां दिन: श्राद्ध और तर्पण -श्राद्ध और तर्पण कर्मकांडों का आयोजन होता है। जल और अन्न अर्पित कर पितरों को संतुष्ट करना।यह कर्मकांड मृत आत्मा के मोक्ष की कामना के लिए किया जाता है।

तेरहवां दिन: पगड़ी रस्म और भोज -तेरहवें दिन परिवार और समाज के लोगों को एकत्र कर भोज आयोजित किया जाता है।इस दिन से परिवार सामान्य जीवन में लौटने की शुरुआत करता है।यह रस्म समाज में दुःख को साझा करने और नए जीवन की शुरुआत का प्रतीक है

तेरह दिनों का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व

हिंदू धर्म में मोक्ष को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य माना गया है। तेरह दिनों के संस्कार आत्मा को इस लक्ष्य तक पहुंचाने में सहायक होते हैं। मृत्यु के बाद परिजनों को मानसिक और शारीरिक शुद्धि की आवश्यकता होती है।

ये संस्कार नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मकता में परिवर्तित करते हैं। तेरह दिनों के संस्कारों के दौरान पूरा परिवार और समाज एकत्र होता है। यह परंपरा आपसी सहयोग और सहानुभूति को बढ़ावा देती है।संस्कारों के माध्यम से परिवार के सदस्य अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करते हैं। यह मृतक के प्रति सम्मान और आभार का प्रदर्शन है।

तेरह दिनों का वैज्ञानिक पक्ष

तेरह दिनों तक किए जाने वाले संस्कार परिजनों को मानसिक और भावनात्मक स्थिरता प्रदान करते हैं। यह समय उन्हें अपने दुःख को स्वीकार करने और शांति प्राप्त करने में मदद करता है।

दाह संस्कार, अस्थि विसर्जन, और सफाई जैसे क्रियाकलापों से स्वास्थ्य और स्वच्छता सुनिश्चित होती है।पिंडदान में उपयोग किए जाने वाले प्राकृतिक पदार्थ जैसे तिल, चावल, और गुड़ पर्यावरण के अनुकूल होते हैं और मिट्टी को पोषण प्रदान करते हैं।

बदलती परंपराओं का प्रभाव

आधुनिक जीवनशैली और समय की कमी के कारण तेरह दिनों के संस्कार को संक्षिप्त कर दिया गया है।कुछ परिवार अब 13 दिनों की जगह 3 या 5 दिनों में ही ये संस्कार संपन्न कर लेते हैं। दाह संस्कार में लकड़ी के अत्यधिक उपयोग के कारण पर्यावरणविद् इसे चुनौती दे रहे हैं। इसके विकल्प के रूप में इलेक्ट्रिक श्मशान का उपयोग बढ़ा है।

3.तेरह दिनों की परंपरा हिंदू धर्म के भीतर भी अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों में अलग-अलग रूप ले चुकी है।

मृत्यु के बाद के तेरह दिनों का महत्व केवल धार्मिक कर्मकांडों तक सीमित नहीं है। ये संस्कार आत्मा को शांति और मोक्ष प्रदान करने के साथ ही परिवार और समाज के लिए मानसिक और भावनात्मक सहारा प्रदान करते हैं।तेरह दिनों के संस्कार हमारे समाज और संस्कृति की गहराई को दर्शाते हैं। ये न केवल मृतकों के प्रति सम्मान और श्रद्धा का प्रतीक हैं, बल्कि जीवित लोगों को भी यह सिखाते हैं कि जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकृति के चक्र का अभिन्न हिस्सा हैं।भले ही बदलते समय के साथ इन परंपराओं में संशोधन हो रहा हो, लेकिन इनका मूल उद्देश्य और महत्व आज भी अटल और अमूल्य है.

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