Chandauli News: कभी बच्चों की खिलखिलाहट और शिक्षकों की आवाज़ों से गूंजते सरकारी स्कूल, आज वीरान होते जा रहे हैं। जिले के नौगढ़ क्षेत्र की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। सरकारी योजनाओं की भरमार होने के बावजूद सरकारी विद्यालयों में बच्चों की संख्या लगातार गिर रही है, और दूसरी ओर निजी स्कूलों का आकर्षण दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है।
सरकारी प्रयासों के बावजूद खाली होते स्कूल
सरकार ने बच्चों को स्कूल से जोड़ने के लिए कई योजनाएं लागू की हैं- मिड-डे मील, मुफ्त यूनीफॉर्म, किताबें, जूते-मोजे और प्रशिक्षित शिक्षक। लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग है। स्कूलों में बेंच तो हैं, लेकिन उन पर बैठने वाले छात्र नहीं हैं। नामांकन के आंकड़े कागजों पर तो ठीक दिखते हैं, मगर कक्षाओं में सन्नाटा पसरा रहता है।
नौगढ़ जैसे वनवासी क्षेत्रों में भी अब निजी स्कूलों की भरमार हो गई है। ये स्कूल आधुनिक शिक्षा और अंग्रेज़ी माध्यम का झांसा देकर अभिभावकों को अपनी ओर खींच रहे हैं। भले ही इनकी फीस आम ग्रामीण की औकात से बाहर हो, लेकिन फिर भी माता-पिता अपने बच्चों का दाखिला इन स्कूलों में करवा रहे हैं। उन्हें लगता है कि महंगी फीस वाला स्कूल ही उनके बच्चे का भविष्य उज्जवल बना सकता है।
प्रशासनिक दौरे और चेतावनियां सब बेकार
हाल ही में शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने नौगढ़ के कुछ सरकारी विद्यालयों का निरीक्षण किया। जब उन्होंने देखा कि कक्षाओं में मुश्किल से एक-दो बच्चे मौजूद हैं, तो उन्होंने सख्ती दिखाई और शिक्षकों को आदेश दिए कि वे घर-घर जाकर बच्चों को स्कूल लाने का प्रयास करें। परंतु, इन आदेशों का प्रभाव अब तक दिख नहीं रहा। कुछ शिक्षक प्रयासरत हैं, मगर शायद नीयत और नतीजों के बीच कहीं कमी रह गई है।
यह सिर्फ शिक्षा की समस्या नहीं है, यह विश्वास का संकट है। जब खुद नेता, अधिकारी, और शिक्षक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, तो एक आम ग्रामीण सरकारी स्कूलों पर भरोसा कैसे करे? जब समाज के प्रभावशाली लोग ही सरकारी व्यवस्था से मुंह मोड़ लें, तो गरीबों के पास क्या विकल्प बचता है? ‘स्कूल चलो अभियान’ जैसे प्रयास तभी सार्थक होंगे जब शिक्षक सिर्फ उपस्थिति दर्ज कराने तक सीमित न रहकर बच्चों की पढ़ाई को अपना मिशन मानें।

Author: Shivam Verma
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